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ढलान की वेला

भवेन्द्रनाथ शइकीया

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1235
आईएसबीएन :81-263-0347-6

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...

Dhalan Ki Vela

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


असमिया साहित्य-लोक में बहुमखी प्रतिभा के धनी कथाकार एवं नाटककार भवेन्द्रनाथ शइकीया के इस संग्रह में उनकी सात लम्बी कहानियाँ संकलित हैं। मानवीय संवेदना और भावों के सम्प्रेषण में शइकीया की कहानियाँ अत्यन्त सशक्त और गहराई तक स्पर्श करती हैं और आकार में भी उतनी ही बड़ी होती हैं। भवेन्द्रनाथ की कहानियों में मुख्यत: निम्न-मध्य वर्ग की दशा का चित्रण होता है। कथानक की भाषा भी पूरी तरह जन-साधारण की—कहीं कोई बनावट नहीं, कहीं कोई लाग-लपेट नहीं और न वहाँ किसी तरह के शब्दाडम्बर का ही घटाटोप है। दूसरे शब्दों में शइकीया की कहानियाँ साधारण असमिया समाज में व्यवहृत सीधी सरल भाषा के साधारण शब्दों से असाधारण भावों की सृष्टि करती हैं।
शइकीया जी की भावचेतना और कलात्मक संरचना से हिन्दी के सुविज्ञ एवं सहृदय पाठकों को निकटता से परिचय कराने की दिशा में इस संग्रह ने निश्चित ही अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। प्रस्तुत है ‘ढलान की वेला ’ का नया संस्करण।


कथाकार की कथा-यात्रा



असम प्रदेश के नवगाँव शहर में सन् 1932 में जनमे श्री भवेन्द्रनाथ शइकीया छात्र-जीवन से ही अत्यन्त मेधावी रहे हैं। सन् 1952 में बी.एस.सी. आनर्स तथा 1955 में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज़ से भौतिक विज्ञान में एम.एस.सी. की। फिर लन्दन युनिवर्सिटी से भौतिकी विज्ञान में पी.एच.डी. की उच्च उपाधि पायी।
कार्यक्षेत्र का आरम्भ शिक्षक के रूप में किया और गुवाहटी विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान में रीडर रहे। यहाँ कार्य करते हुए वे पाठ्यपुस्तक निर्मात्री समिति के संयोजक भी रहे। अन्य अनेक शैक्षिक संस्थाओं से नाना रूपों से जुड़े रहे।
परन्तु श्री भवेन्द्रनाथ शइकीया का असली स्वरूप तो कला और संस्कृति के उस व्यापक क्षेत्र में प्रस्फुटित हुआ जहाँ नाना धाराओं में वे इतनी तेजस्विता से उभरे कि आज उन्हें किसी एक क्षेत्र में समाहित कर पाना असम्भव ही है।
कथा-क्षेत्र से उनकी प्रतिभा का स्फुरण हुआ। सातवें दशक में असमिया पत्र-पत्रिकाओं में जैसे ही उनकी कहानियाँ प्रकाशित होनी शुरू हुईं, वैसे ही लगा कि असमिया कथा-क्षेत्र में एक बिल्कुल ही नयी शैली की स्रोतस्विनी फूट पड़ी है। विशेषता तो यह थी कि उन्होंने लोगों को आकर्षित करने के चमत्कारपूर्ण सन्दर्भों और चाकचिक्यपूर्ण भाषा का कतई इस्तेमाल नहीं किया, अपितु असमिया कथा-भाषा की चिर-आचरित शैली में ही अपनी निजी प्रतिभा का उपयोग कर अपनी पैनी जीवन-दृष्टि से उसे ऐसा जीवन्त रूप प्रदान किया कि असमिया कथा-आकाश में एक तेजस्वी नक्षत्र की भाँति प्रकाशित हो उठे।

कहानी-लेखन के साथ-साथ ही उन्होंने ‘प्रान्तिक’ नामक श्रेष्ठ पत्रिका का सम्पादन भी किया, जिसमें उनके विचारोत्तेजक लेखों के अतिरिक्त उनकी कहानियाँ और फिर धारावाहिक रूप से उपन्यास भी प्रकाशित हुए।
उनकी कहानियों के कई संग्रह समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। 1963 में ‘प्रहरी’, 1965 में ‘वृन्दावन’ 1969 में ‘तरंग’ और ‘गह्वर’, और 1970 में ‘सेन्दूर’, 1975 में ‘श्रृंखल’ और 1988 में ‘आकाश’ नामक उनके कथा-संग्रह प्रकाशित हुए जो अतिशय लोकप्रिय हुए।

सन् 1981-82 में धारावाहिक रूप में ‘प्रान्तिक’ में प्रकाशित उनका उपन्यास ‘अन्तरीप’ असमिया उपन्यासों में मील का पत्थर साबित हुआ। इस उपन्यास के पूर्वार्ध का आधार लेकर उन्होंने जो ‘अग्निस्नान’ नामक वृत्तचित्र निर्माण किया और उत्तरार्ध की कथा के आधार पर ‘सन्ध्याराग’ नाम से वृत्तचित्र बनाया तो सिनेमा के क्षेत्र में पिछड़ा समझे जाने वाले असम प्रदेश की प्रतिभा का साक्षात्कार न केवल भारतवर्ष बल्कि समूचे सिने-जगत् को हुआ, जिसकी सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। अब तक केवल उनकी कहानियों के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके अनुवाद भी अँग्रेज़ी, बांग्ला, तेलुगु, मलयालम, मराठी, गुजराती और हिन्दी में प्रकाशित होते रहे हैं।

नाटक और रंगमंच से तो उनका सहज सम्बन्ध रहा है। गुवाहटी के ‘मूविंग थियटर’ के लिए उन्होंने चौदह नाटक लिखे, संचालित किये और जगह-जगह घूमकर उनका मंचन और प्रदर्शन किया। आज की अपनी अधिक व्यस्तता में भी वे असमी रंगमंच से उतनी ही प्रगाढ़ता से अभी भी जुड़े हुए हैं।
गुवाहटी में आकाशवाणी केन्द्र के आरम्भ होने के दिनों से ही उनके रेडियो नाटक आकाशवाणी गुवाहटी से प्रसारित होते रहे हैं। रेडियो पर प्रसारित उनके नाटक ‘जोनाकी’ और ‘देवता’ बहुत ही लोकप्रिय हुए। श्री अरुण शर्मा ने अपने असमी रेडियो नाटक-संग्रह (अनाताँर नाट्यवली) में उनके ‘श्रृंखल’, ‘दुर्भिक्ष’ जैसे नाटकों का प्रकाशन किया है। ‘कोलाहल’ तथा  ‘दुर्भिक्ष’ जैसे उनके नाटक अखिल भारतीय आकाशवाणी केन्द्र से प्रसारित हुए। कोलाहल का प्रसारण तो विदेशी प्रसारण केन्द्रों से भी हुआ।

अपने द्वारा रची गयी कहानियों एवं नाटकों को रंगमंच के माध्यम से प्रदर्शित कराने के अतिरिक्त श्री शइकीया ने असमिया भाषा के पिछड़े हुए सिनेजगत् को विकसित करने के लिए उन्हें वृत्तचित्रों के रूप में स्वयं ही निर्देशित किया और स्वयं ही उनका निर्माण भी किया। अपने इस प्रयास में उन्होंने असमिया सिनेमा को जो गौरवपूर्ण स्थान दिलाया उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा।

यह एक सुखद संयोग है कि अब तक उनके जो पाँच वृत्त-चित्र प्रदर्शित हुए उन सभी पाँचों-के-पाँचों को भारत सरकार ने रजत कमल पुरस्कार से सम्मानित किया है। उनके प्रथम वृत्तचित्र ‘सन्ध्याराग’ को सन् 1978 में, ‘अनिर्बान’ को 1981 में, ‘अग्निस्नान’ को 1985 में कोलाहल को 1988 में तथा सारथी को 1992 में रजत कमल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। उनका छठा वृत्तचित्र आवर्त्तन शीघ्र ही प्रदर्शित हो रहा है। साहित्यिक क्षेत्र में भी डॉ.शइकीया को प्रभूत सम्मान मिला है। अखिल भारतीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार से उन्हें 1976 में सम्मानित किया गया। अमस प्रकाशन परिषद् का प्रतिष्ठित पुरस्कार उसके प्रारम्भिक वर्ष 1973 में ही उन्हें प्रदान किया गया। अग्निस्नान को 1985 में सर्वोत्तम चित्र-नाट्य पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता ने हरनाथ घोष मेडल (1981) से पुरस्कृत किया, तो असम प्रदेश के श्रेष्ठ पुरस्कार असम वैली लिटरेरी एवार्ड से उन्हें 1990 में अलंकृत किया गया। असम प्रदेश एवं अखिल भारतीय स्तर की नाना शिल्प-कला संस्कृति विषयक संस्थाओं के आप सम्मानित सदस्य हैं।

इस तरह जहाँ डॉ. भवेन्द्रनाथ शइकीया ने अपने साहित्यिक अवदानों, रंगमंचीय प्रस्तुतियों, वृत्त-चित्र निर्माण की तकनीकी एवं विषयगर्भित उत्कृष्टताओं से समाज को अवदान दिया है, वहीं समाज ने तथा सरकारी और गैरसरकारी प्रबुद्ध संस्थाओं एवं कला-पारखियों ने उन्हें भी भरपूर सम्मान दिया है।
ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. भवेन्द्रनाथ शइकीया की रचना को भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली ने जब राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित कर प्रस्तुत करना चाहा और उसके लिए मुझे उनकी श्रेष्ठ कहानियों का चयन कर हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत करने को कहा, तो मेरे समक्ष एक जटिल समस्या आ गयी। शइकीया जी की कौन-सी कहानी छोड़ी जाए और कौन-सी ग्रहण की जाए, यह निर्णय लेना आसान नहीं है। मैंने यथासम्भव असमिया कहानी के श्रेष्ठ समालोचकों से एवं स्वयं डॉ.शइकीया से भी पत्राचार से और गुवाहटी जाकर व्यक्तिगत सम्पर्क करके भी इस गुत्थी को सुलझाना चाहा। परन्तु कहीं से भी स्पष्ट संकेत नहीं मिले। कालक्रम की दृष्टि से निर्वाचन प्राय: सरल होता है क्योंकि प्राय: ही रचनाकारों की आरम्भिक कृतियाँ कुछ कच्ची होती हैं परन्तु डॉ.शइकीया के साथ तो यह सूत्र भी नहीं चलता, क्योंकि उनकी सन् 1952 में प्रकाशित यात्रावध कहानी भी उतनी ही प्रौढ़ और सशक्त है जितनी 1968 में प्रकाशित गह्वर या 1975 में प्रकाशित आकाश। एक समस्या यह भी थी कि डॉ.शइकीया की कहानियाँ जैसे महत्त्व में बड़ी होतीं, उसी तरह आकार में भी काफी बड़ी होती हैं। अत: कुछ थोड़ी-सी कहानियों में ही पुस्तक का आकार बड़ा हो जाता है। काफी सोच-विचार के बाद मैंने प्रस्तुत संकलन के लिए उनकी सात कहानियाँ चुनीं जो यहाँ ढलान की वेला, दहेज, ग्रहण, पहरुए, चूहा, शिलान्यास और खाई शीर्षकों से प्रस्तुत की गयी हैं।

 इस चुनाव में मैंने पूरी कोशिश की है कि डॉ. शइकीया की भाव-चेतना और कलात्मक संरचना से हिन्दी पाठकों का निकट से परिचय करवा सकूं। इसमें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ यह तो सुविज्ञ पाठक ही बता सकेंगे। दरअसल अपनी जीवन-शैली के अनुरूप ही डॉ.शइकीया अनन्य साधारण हैं। इतनी प्रतिष्ठित पत्रिका के इतने बड़े सम्पादक, वैज्ञानिक गवेषणा के इतने बड़े आचार्य, असमिया रंगमंच के इतने श्रेष्ठ प्रस्तुतकर्ता, असमिया कला-फ़िल्मों के इतने बड़े निर्देशक एवं निर्माता, पटकथा-लेखक, वृत्तचित्रों के निर्माण में सैकड़ों श्रेष्ठ कलाकारों से हर क्षण घिरे रहने वाले, विभिन्न स्थानों पर सूटिंग के लिए बराबर चलते रहनेवाले व्यस्त कलाकार तथा देशविदेश में प्रदर्शित की जा रही अपनी पुरस्कृत फ़िल्मों के प्रदर्शन में भाग लेने हेतु सतत यात्राशील डॉ.शइकीया सौन्दर्य की हाट में भी अतिसाधारण वेशभूषा में अत्यन्त सहज सरल ढंग से तो रहते ही हैं, आगत अतिथियों के प्रति व्यक्तिगत सौहार्द्र प्रकट करने में भी उनका कोई जवाब नहीं।

ठीक अपनी जीवन-शैली के अनुरूप ही वे अपनी कहानियों के गुरुगम्भीर कथानकों में भी अपने अन्तस्तल में बहती सहज-सरल धारा की स्रोतस्विनी को उजागर कर देते हैं। मुख्यत: वे निम्न-मध्य वर्ग की दशा को ही चित्रित करते हैं परन्तु उच्च वर्ग के शीर्ष पर आसीन व्यक्ति के अन्तरतम में बैठे उस सहज मानव-मन को भी बड़ी सुगढ़ता से उद्घाटित करते हैं। ‘खाई’ कहानी में मिस्टर पियेनार के हृदय-प्रत्यारोपण में काली चमड़ीवाले नौजवान का हृदय लगाने से, कालीचमड़ी के नौजवान स्मिथ की सड़क दुर्घटना में अकाल मृत्यु से सन्त्रस्त उनकी पत्नी ‘मेरी’ जहाँ अपने मृत पति के जीवित हृदय स्पन्दन को सुनने के लिए आकुल-व्याकुल है वहाँ उसके प्रति थोड़ी-सी मानवीय सहज करुणा का भाव प्रदर्शित करते ही मिस्टर पियेनार गोरी चमड़ी के अपने ख़ास सम्भ्रान्त वर्ग के ही दुश्मन मान लिये जाते हैं। एक ही वर्ग की भावनाओं के ऐसे परिवर्तन को शइकीया इतने कौशल से प्रस्तुत करते हैं कि कहीं ज़रा-सा भी आभास नहीं होता कि दो छोरों में विभाजित विश्व की रंगभेद की विभीषिका में मानवीय स्तर पर कैसे यह यथार्थ घटित हो जाता है।

‘चूहा’ कहानी में मति की माँ की ज़िन्दगी का जो यथार्थ प्रस्तुत हुआ है, दलित-उपेक्षित-क्षुधित वर्ग की जो पीड़ा प्रकट हुई है, नाना तरह की पार्टीगत सोच रखनेवाले सर्वहारा के हितों के पैरोकार अपने तरह-तरह के लुभावने और उत्तेजक नारों से भी वह सहानुभूति अभिव्यक्त नहीं कर सकते। शइकीया कहीं भी नारेबाजी का सहारा नहीं लेते और न ही वे दलगत राजनीति से फायदा उठाना चाहते हैं, वे तो बस जीवन के यथार्थ को सहज-सरल ढंग से प्रस्तुत भर कर देते हैं।
‘प्रहरी’ कहानी अधिशप्त जीवन की दारुण यातनाओं पर एक बड़ा ही क्रूर प्रहार है। मन्थर गति से क्रमश: नाश को प्राप्त हो रहे अध्यापक रजनी बाबू के जीवन को उनकी धर्मपत्नी भाग्यवती (दरअसल जिससे और अभाग्यवादी शायद ही ढूँढ़ने में मिले) अपनी बेबसी और लाचारी से और कारुणिक बना देती है।

‘ढलान की वेला’ का सन्त्रास दहेज में सब कुछ गंवा बैठे बाप को दहेज-दानव से बचाने के लिए बेटी का अद्भुत अजीब प्रयास ‘ग्रहण’ में अवसर प्राप्त कृतकर्मा व्यक्ति के जीवन के चारों ओर से जकड़कर उसके जीने की सार्थकता को ही नकार देने की चेष्टा जैसे गूढ़ भावों को बड़ी सहजता से कृतिकार शइकीया ने अभिव्यक्ति दी है।

डॉ.शइकीया की एक खास विशेषता है कि वे शब्दों का चुनाव बड़ी सूझ-बूझ और गहरे भाव-बोधक सूचकों या प्रतीकों के रूप में करते हैं। भाषा वे पूरी तरह जनसाधारण में प्रयुक्त भाषा ही रखते हैं, अपनी ओर से चाकचिक्य या लाग-लपेट भरी बनावटी भाषा कतई नहीं इस्तेमाल करते। न तो शब्दाडम्बर का घटाटोप बाँधते हैं, न शुद्धता-तत्समता का रोब ही ग़ालिब करते हैं। साधारण असमिया समाज में व्यवहृत साधारण असमिया भाषा के साधारण शब्दों से ही असाधारण भावों की सृष्टि करते हैं। भाषा और भावांकन द्वारा जो कहानी वे कहते हैं वह कानों के साथ-साथ आँखों को भी निरन्तर सजग किये रखती हैं, जो तदनुरूप चित्र बनाती चलती है और सारा श्रव्य आकाश एक प्रभाव परक परिदृश्य बनता चलता है। श्रव्य और दृश्य के इतने गहन सम्बन्धों को रूपायित करनेवाली कला विरले ही कथाकारों में मिलती है। ऐसी विरल प्रतिभा के धनी असमिया डॉ. भवेन्द्रनाथ शइकीया के कथाजगत् का एक परिचयात्मक स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास इस संग्रह में हुआ है। यदि हिन्दी जगत् इससे तनिक भी लाभान्वित होता है, तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगा। इसे प्रस्तुत करते हुए मैं सर्वाधिक आभारी भारतीय ज्ञानपीठ का हूँ, जिसने अपने नाम के अनुरूप समूची भारतीय भाषाओं के साहित्य से हिन्दी भाषा-भाषियों को परिचित कराने के महिमामय कार्य का सदा समादर किया है। उसकी इस उदार भावना से ही असमिया के कृती साहित्यकार की कहानियाँ प्रकाशित हो पायी हैं।

[प्रथम संस्करण, 1995 से]

-महेन्द्रनाथ दुबे


ढलान की वेला



दूर के उस छोर पर स्थित उस लम्बे चौड़े विशाल बाँध के ऊपर-ऊपर अतिशय चंचल गति से आगे-आगे बढ़ती चली जा रही उन दोनों नवयुवती क्वाँरी किशोरियों को वसन्त ऋतु, नौजवानी और वैशाख महीने के प्रबल आवेगमय पवन झकोरों द्वारा बरबस खींच लायी गयी दो अल्हड़, उच्छृंखल, अलौकिक कुमारियों के रूप में देखा गया; ठीक कुछ थोड़े से सहज सरल चित्रों में चित्रित बसन्त कुमारी वरदैशिला1 देवी की तरह।

बाँध की उस बगल में नदी है, नदी के उस पार काफी दूर दूर तक फैला मैदान है, मैदान और क्षितिज के छोर के बीचों-बीच अत्यन्त सघन वृक्षों का-इतने घने कि कहीं ज़रा-सा भी छिद्र या फाँक बाक़ी न रह गयी हो-बेढ़ा है, और उस बेढ़े को फलाँग करके सूरज बाँध की ओर टकटकी लगाये देखे जा रहा था। अत्यन्त प्रचण्ड प्रतापी युवराज की दृष्टि पड़ जाने पर जिस तरह एक साधारण प्रजा की कन्या रहस्यमय हो उठती है, सूरज की उल्टी दिशा से देखने पर वे दोनों नवयुवतियाँ भी ठीक उसी तरह रहस्यमयी प्रतिमूर्ति-सी जान पड़ रही थीं। इस ओर से उन्हें कुछ श्यामवर्ण का, धुँधला, अस्पष्ट सँवराया-सा ही देखा गया। वे जिस ओर बढ़ती चली जा रही थीं, उसकी उल्टी दिशा से हवा का तेज़ हिलकोरा बहता आ रहा था। फलत: उनकी देह-यष्टि पर लिपटे हल्के महीन कपड़े उनकी देह के साथ साथ ही आगे बढ़ते न जाकर पीछे की ओर ही ठहरे-खिंचे रह जाना चाहते थे और उनकी देह के अगले हिस्से के अंग-प्रत्यंगों के उभार और अधिक स्पष्ट हो उठे थे, उस बाँध के ऊपर यहाँ-वहाँ खड़े होकर अपने विभिन्न अंगों को हिला-डुला रही गायों के शरीर के डील-डौल वाले आकार जैसे झलके पड़ रहे थे, लगभग ठीक उसी तरह।
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1.    वरदैशिला वैशाख महीने में उठने वाले अत्यन्त उत्पाती झंझा तूफान को कहते हैं, बंगाल में जैसे काल वैशाखी। असम क्षेत्र में लोकविश्वास है कि वरदैशिला देवी असम की अपनी माटी की कन्या है, जो वैशाख महीने में असम में मनाये जानेवाले रंगारंग महोत्सव ‘वहाग बिहू’ का भोग खाने के लिए अपने मायके असम क्षेत्र में आती हैं। उनके आने जाने के क्रम में उनके पंखों के प्रबल प्रवाह के कारण ही ‘वहाग बिहू’ के पहले और बाद में यह उत्पाती झंझा तूफान आता है, इसी से उसे भी वरदैशिला कहा जाता है।

ये दोनों नवयुवतियाँ हैं-चारू और तरू। सगी बहनें-बड़ी बहन और छोटी बहन। चारू एक रेशमी साड़ी पहने हुए है। साड़ी बीच बीच में, जगह-जगह से फट गयी, कई जगहों पर दरक-मसक गयी है। सामान्यत: एक साड़ी पहनने में जितना समय लगना चाहिए, उससे बहुत अधिक समय लगाकर, बड़ी सावधानी से सँभाल-सँभूलकर पहनते हुए चारू ने फटी हुई कई जगहों को छिपा दिया है। परन्तु ये दरकनें-मसकनें तो जैसे उस साड़ी पर अंकित डिजाइन के फूलों की सूखी मुरझायी पंखुडियां हों, जो जरा-सी छेड़-छाड़ करने मात्र से ही झड़ पड़ेंगी, और फिर फूल के नाम पर बस डण्ठल मात्र ही शेष रह जाएगा। उन्हें छिपाये रखने का फिर कोई उपाय नहीं। क़रीब से देखने पर हवा की हिलकोरों से उड़-उड़ जाते आँचल के बीच से रह-रहकर थोड़ी-थोड़ी देर पर सूरज के साथ-साथ पूरब का उज्जवल आकाश भी झिलमिल चमकता हुआ दिखाई पड़ेगा। दिखाई पड़ेगा कि जैसे प्रचण्ड प्रतापी युवराज राजकुमारी के आँचल में मुँह छिपाये क्रीड़ा-कौतुक कर रहा है।
हाँ, यह जरूर सच है कि यह साड़ी दरअसल मूलत: जिसकी थी, उसकी देह पर पड़ी होने पर ये फटे छेद और दरके-मसके अंश भी साड़ी की मूल डिजाइन के फूलों से भी अधिक लुभावने हुए होते।

यह साड़ी मूलत: माधवी नाम की एक लड़की की थी। अत्यन्त सुन्दर स्वास्थ्य की एक कान्तिमयी शोभाशाली नवयुवती थी माधवी। उसकी देह का रंग-रूप इतना भव्य था कि उसकी देह के जिस अंश को कपड़ों ने ढँक रखा था, बस वे ही अंश भर अप्रिय लगते थे। और हाँ, दरके-मसके पारदर्शी जैसे दिखाई पड़नेवाले नये-नये तरोताजा कपड़े उसके पास ढेर सारे थे।
माधवी और उसके परिवार में मजदूरी करनेवाली घरेलू नौकरानी थी चारू। माधवी की उम्र जिस समय दस वर्ष की थी, उसी समय उसके पिता श्री नन्दन दास जी ने अपने एक बहुत पुरानी जान-पहचान के डाकघर के चपरासी से घर में कामकाज करनेवाली एक घरेलू नौकरानी खोज-ढूँढ़कर सूचित करने के लिए कहा था। उस डाकिये ने यह बात अपने एक परिचित ग्रामीण सज्जन से कही और वे ग्रामीण सज्जन चारू और तरू की माँ पुतली के पास जा पहुंचे। पुतली का पति मुकुन्द दैनिक मज़दूरी कर-करके घर परिवार चलाता जा रहा था।

 काम-धाम के चक्कर में खोजते-ढूंढ़ते वह बेचारा कभी-कभी तो सात-आठ मील दूर तक पहुँच जाता था। एक बार इसी तरह उतनी ही दूर पहुँचकर एक ठेकेदार का मजदूर बनकर जंगल में लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़ा, लगभग बीस हाथ ऊपर जाकर लकड़ी काटते-काटते ऊपर से नीचे गिर पड़ा और अन्तत: बेचारा मर ही गया। उस समय चारू की उम्र थी चार वर्ष और तरू की उम्र थी मात्र दो वर्ष।
उसके बाद पुतली ने फिर किन-किन उपायों से दोनों लड़कियों को लेकर कैसे कैसे दिन काटे थे, इसका कोई संक्षिप्त वृत्तान्त नहीं है। लोगों के खेतों में धान की कटाई करके, अपनी मड़ैया की चाल पर फैली बेल में फले कुम्हड़े को ले जाकर बाज़ार में बेच-बेच कर मुर्दघट्टे की ओर जाने वाले रास्ते के किनारे किनारे आस-पास अपने आप उपजे करैले खोजते, नन्ही-नन्ही बच्चियों के कान छेद-छेदकर, लोगों के सूतों-धागों-से रात के मध्यभाग, आधी-आधी रात तक दीये की रोशनी में हथकरघे पर कपड़े बुन-बुनकर तीन मुँहों को आहार जुटाने के लिए जाने कैसे-कैसे विचित्र काम थे पुतली के। फिर भी, और फिर भी एक मुट्ठी भात का जुगाड़ हो नहीं पाता था।

पाँच वर्ष के अन्दर अन्दर ही उस बेचारी औरत के तो जैसे पन्द्रह वर्ष बीत गये हों। उसकी देह के गदराये मांस सूख गये, उनकी जगह अब मांस के बदले जैसे हाड़-हाड़ ही, कड़े-मोटे होकर बाहर निकल आये। काले काले चकते बित्ते भर-भर के दागों ने उसके दोनों गालों की मुलायम त्वचा को ढँक लिया। ऐसी ही दुर्दशाग्रस्त वेला में एक दिन वह आदमी पुतली वग़ैरह के घर आ उपस्थित हुआ।
‘‘शहर में निवास करनेवाले एक नामी-गिरामी बड़े भारी आदमी अपने घर में मजदूरी पर काम करने के लिए एक लड़की ढूँढ़ रहे हैं। अरे मज़दूरी के बदले काम भी क्या ? यही समझो कि बस घर-आँगन झाड़-झूड़कर साफ कर देना और छोटे-मोटे कपड़े-लत्ते धो-धाकर फैला देना। बस उतना ही।’’
पुतली सारी रात सोचती रही, और फिर दूसरे दिन भोर में ही उसने उस आदमी से पूछा, ‘‘तो फिर और कुछ चाहे भले न हो, वह दोनों बेला दो मुट्ठी पेट भर भोजन तो खाने को पाएँगी न। क्यों, क्या नहीं पाएँगी ?’’

नौ वर्ष की कच्ची उम्र में ही चारू नन्दन दास जी के घर में आ गयी। नन्दन दास जी का विशाल प्रासाद था। पक्की फ़र्श का पक्का मकान। सर्वत्र बिजली की रोशनियाँ जलती हैं। घर के सभी लोग तीन-तीन चार-चार प्रकार की तरकारी के साथ भोजन करते हैं, माधवी को पढ़ने के लिए मोटरकार स्कूल पहुँचा आती है और फिर जाकर स्कूल से घर ले आती है। कुछ दिनों तक चारू को बड़ी असुविधा हुई। इस खास किस्म की तमाम सारी फर्शों को किस तरह झाड़े-बुहारे परिष्कार करे। इन सब बर्त्तन-बासनों को भला कैसे धोये। चीनी मिट्टी के कप-प्लेटों को जब वह धोती होती, तब जिस दिन माधवी की माता जी सावधान करती हुई आगाह करतीं- ‘‘देखना, कहीं किसी तरह कोई एक टूट न जाए !’’ तो फिर उस दिन तो चारू का हाथ और अधिक काँपने लगता। कप-प्लेटों उछल-कूदकर उसके छोटे-छोटे हाथों के बीच से सरक-सरककर बाहर हो गिर पड़ जाने को उतावली हो उठतीं।

एक महीना पूरा हो जाने के बाद उसी चपरासी के हाथ में चारू की माँ को देने के लिए दस रुपये देने के समय नन्दन दास ने अपनी पत्नी को समझाया, ‘‘उस बेचारी बच्ची पर बिगड़ने की जरूरत नहीं, उसका बुरा मानना ठीक नहीं। सिखा-समझा देने से सम्भवत: सभी कुछ अच्छी तरह कर ले जाएगी। क्यों, ठीक है न ?’’
हाँ, सब कुछ अच्छी तरह कर सकी। बाद के समय में चारू घर के प्राय: सभी कामों को अच्छी तरह पूरी होशियारी और दक्षता से कर सकी। अदरख-लहसुन के छिलके उतारने के लिए एक दिन उनके भोजनालय में भी प्रवेश कर गयी, उसके बाद तो एक दिन ऐसा भी सुयोग आया कि घर आये कुछ विशिष्ट अतिथियों के स्वागत-सत्कार हेतु माधवी की माताजी के संग-संग उनके समान काम करते हुए नाना प्रकार के व्यंजनों को रींधना-पकाना भी सीख गयी। भोजन करने की विशाल मेज पर खाने-पीने की वस्तुओं को बड़ी कुशलता से, बर्तनों की दाँती पर रसदार पदार्थों का कहीं एक बिन्दु रस लगे बिना ही परसने में भी समर्थ हो गयी।


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